आत्मा की पुकार, सच्चाई का खून क्यों?
🔥 ॐ कार्मिक । आरंभ । 🔥
मैं कौन हूँ? मैं क्यों हूँ? - ख़ुद से पूछें
✍️ आत्मगुरु से जीवन दर्शन
ॐ सूत्र वाक्य
मन जलता तो जलने देता
दिल जलता तो आत्मा को पूछता
यहां तो मैं ख़ुद ही जल रहा हूँ
इसलिए आलम को पूछता हूँ
भी सूत्र
जब लोहा लोहे को पीटता है तब आग उबलती है
वहीं आग कि भट्ठी से तपकर एक शस्त्र का जन्म होता हैं
जब भीतर विद्रोह होता है तब मन शस्त्र बन जाता है आसा उसकी धार बन जाती हैं
(Up-Shīrshak 1: Parichay - Bhītar Kā Daman)
परिचय: भीतर का दमन और आंतरिक विद्रोह
हमारा भी जीवन था। लोग बाहरी दमन [Bāharī Daman - External Suppression] गुजारते हैं, हमने भीतर दमन गुजारा।
हमारे जीवन की दो बाहें थीं: हम बाहरी बुज़दिल [Buzdil - Cowardly] थे, पर भीतर से दमनी [Damani - Suppressive] थे।
- मैंने मन पर बहुत जुल्म किए, उसे आशा में उलझाकर रखा। "अब मन विवश हो गया था, क्योंकि आशा की बेड़ियों ने उसे जकड़ कर रखा था।"
- बुद्धि को शराफ़त के धागे में पिरो दिया।
- अरमानों को सिद्धांतों की काल कोठरी में कैद कर दिया।
- मैंने इच्छा का गला घोटा।
- विचारों को मूल्यों के धागे से बाँध दिया।
क्या मित्रो! मैंने सही किया या गलत? यह तो मैं नहीं कह सकता; यह तो भीतर छुपा है।
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(Up-Shīrshak 2: Lāvā Kā Uday Aur Gahan Dukh)
वेदना: लावा और तूफान का उदय
जब रात ढलती है तभी सूर्य का उदय होता है। जब समंदर में लावा होता है तभी तूफ़ान उठता है।
अब मेरे भीतर लावा आकार ले रहा था। मैं महसूस कर रहा था कि एक ऐसा तूफ़ान उठने वाला है जो मुझे झकझोर देगा।
मैंने जो मन पर अत्याचार किए थे, वो अब आज़ाद हो चुका था। आशा की किरणें अंधकार के बादलों को भेद न पाई—वे टूट चुकी थीं।
इच्छा मृत्यु का द्वार खटखटा रही थी। बुद्धि गुमराह हो गई थी, महत्वकांक्षा आँसू बहा रही थी। मैं महसूस करता था कि ये सब मेरे अंदर एक दावानल का रूप ले रहा है।
मन आग से जल रहा था, आग की ज्वालाओं से मेरा रोम-रोम जल रहा था और मैं दर्शक बन गया था। ऐसा महसूस होता था कि ये सब मुझे मिटाने वाले हैं, क्योंकि इस परिस्थिति का असली ज़िम्मेदार मैं ही था।
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आत्मा की पुकार, सच्चाई का खून!
बाहर लोग दर्शक बनकर बैठे थे, भीतर मैं दुश्मन बन गया था। मैं गहन दुःख में महसूस करता था कि मैं एक काल के मुँह में हूँ।
काली अँधेरी रात... घोर अँधेरा छा रहा था, तारा चमके, चाँद खिले, हवा हँसे... सोते सारे संसार में मेरी आत्म-वेदना कोई पूछता नहीं। भाव मेरे दिल में, गहरे घाव मेरे—सत्य ने किया ये हाल।
- जब आत्मा पुकारती है, तब चेतना जागृत हो जाती है।
- जब चेतना जागृत होती है, तब माया की जंजीरें टूट जाती हैं
- मेने भीतर दमन गुजारे,
- बाहरी में दमन से गुजरा,
- फेर भी मैं अखंड क्यों?
- क्योंकि मैं आत्मा के रक्षा कवच भीतर था,
- उसके प्रकाश से मुझे पोषण मिल रहा था।
एक लोहे को आकार पाने के लिए भट्ठी कि आग से गुजरना पड़ता है )
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(Up-Shīrshak 3: Lohe Ko Ākār Pāne Ke Lie Bhatthī Kī Āg Se Guzarnā Paṛtā Hai)
समाधान: मौन की साधना और चेतना का संवाद
मैंने कुछ प्रकृति से सीखा था कि एक तूफ़ान आता है तो हम घर में बैठकर सिर्फ़ दर्शक बन जाते हैं। इसलिए मैंने सोचा कि मौन ही एक ऐसी साधना है जो बड़े-बड़े तूफ़ानों को शांत कर सकती है। जैसे बारिश आती है तो धूल के बादल शांत हो जाते हैं।
ऐसी स्थिति में इंसान दो रास्ते चुनता है: 1. वह मृत्यु के द्वार पर जा खड़ा होता है, 2. वह क्रूरता की ओर बढ़ता है (जो भी मृत्यु के समान है)।
लेकिन मुझे तो और ज़्यादा जीने की इच्छा हो रही थी। मैं ईश्वर के पास मन ही मन भीख माँग रहा था कि मुझे आयु उधार दे।
मैं यहीं सोच रहा था कि मुझे यह तलवार की धार पर किसने खड़ा किया? मेरे मन, इच्छा और बुद्धि पर इतने जुल्म किसने करवाए? मुझे अभी भी कौन रोक रहा है? मुझे उसको ढूँढना था, लेकिन इसके लिए तूफ़ान की शांति बहुत आवश्यक थी।
समय रहते हुए सब शांत हो गया। मैंने मेरे सारे तर्कों को एकत्रित किया और एक रात्रि के दरम्यान, शांत वातावरण में गहन चिंतन करने लगा।
मैंने भीतर के सारे पर्दे खोल दिए, तो मुझे पता चला कि यह चेतना ने किया है।
मैंने चेतना से सारे प्रश्न किए। चेतना एक-एक करके सारे पर्दे खोल रही थी और मैं मौन बनकर सुन रहा था।
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(Up-Shīrshak 4: Jīvan Darshan Aur Kartavya)
ज्ञान: जीवन का दर्शन और कर्तव्य
- यह जीवन एक यात्रा है, स्थाई नहीं है। महत्व यह है कि आपने जीवन यात्रा में जीवन के दर्शन किए हैं या नहीं।
- लोग जीवन जी नहीं रहे, बल्कि काट रहे हैं। मनुष्य की उम्र बढ़ती नहीं है, यह तो सिर्फ़ आत्मज्ञान के अभाव का भ्रम है। वास्तव में, उम्र घट रही है।
- मनुष्य का जन्म कर्तव्य निभाने के लिए होता है। जब कर्तव्य पूर्ण होते हैं तभी उसका स्वर्गवास होता है।
तो मैंने चेतना को प्रश्न किया कि क्या मेरे कर्तव्य पूर्ण हो गए?
उसने कहा: कर्तव्य तो तुमने अभी निभाए ही कहाँ! तुमने तो अभी तक ज्ञान की एक पूँजी खड़ी की है।
जैसे एक लोहा भट्ठी की आग में तपकर तैयार होता है, इसलिए मैंने तुम्हें आग की भट्ठी में डाला था।
अब यह पूँजी लेकर जाओ, लोगों में बाँटो, और अपने कर्तव्य निभाने की शुभ शुरुआत करो। लोग तुम्हारी राह देख रहे हैं।
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(Up-Shīrshak 5: Pāthak Se Samvād Aur Vachan)
अंतिम तोल: निष्काम कर्म का प्रमाण
मेरे प्यारे बंधुओं! बस वहीं से मेरा जीवन शीतल बन गया और आज जैसा हूँ, वैसा आपके सामने हूँ।
हमने तो भीतर के तराज़ू से तोला था, स्वार्थ के तराज़ू से नहीं। हमें कहाँ पता था कि संसार में तराज़ू व्यक्तिगत होते हैं।
न किसी की ख़्वाहिश [Khwāhish - Desire] पूरी कर पाए, न अपनी ज़िंदगी सँवार पाए, बस जूझते [Jūjhte - Struggling] रहे ज़ालिम दुनिया में।
गुनाह था, हमारा, सिर्फ़ इतना कि शराफ़त के नशे में पागल थे हम, इसी नशे में धोखा खा गए हम। हमें कहाँ पता था कि सूखे पेड़ को पानी पिला रहे हैं हम।
न पागल थे न बेवकूफ़ थे हम, अफ़सोस हमें सिर्फ़ इतना कि लोगों की नज़र में बेवकूफ़ ठहराए गए हम
- धन दौलत के मोहताज नहीं थे
भावनाओं के प्रवाह में बह गए थे हम
भीतर और बाहरी को समान रूप से देखते थे हम
उतर देना तो हम भी जानते थे
लेकिन कर्म के सिद्धांतों और मूल्यों की जंजीरों ने हमें विवशता की कारावास में बाँधकर सलाखों के पीछे धकेल दिया।"
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(चेतना से अंतिम संवाद)
परंतु मेरे मन में यह प्रश्न उठा: क्या इस संसार में सत्य के लिए कोई जगह है? लोग सत्य को सामने देखकर भी अनदेखा करते हैं, वे मीडिया के झूठे प्रभाव में खो गए हैं। क्या मेरा यह कर्म व्यर्थ तो नहीं जाएगा?
तब चेतना ने मुझे कहा: यह तुम्हारी ज़िम्मेदारी नहीं है। यह तो मानव कर्तव्य और कर्म है। आपका कर्तव्य सिर्फ़ लोगों तक सत्य को पहुँचाना है। पढ़ना या नहीं पढ़ना, शेयर करना या नहीं—वो उस पर छोड़ दो।
सही कहा था किसीने कि
खुदा के दरबार में देर होती है, अंधेर नहीं
अंधेर तो हमारे भीतर होती है
खुदा तो कर्म का तराजू लेकर बैठा है
निष्कर्ष:
मैं वचनबद्ध हूँ कि एक सत्य और मौलिकता के अलावा कुछ नहीं बाँटूंगा।
नहीं टूटेंगे, नहीं बिखरेंगे, कर्म के सिद्धांतों से जुड़े हैं हम। न बदले हैं, और न हम बदलेंगे, क्योंकि हमारे सिद्धांतों और मूल्यों पर अडिग हैं हम।
मित्रों! मैं अपील करता हूँ कि अभी भी लौट जाओ, देरी नहीं हुई है। अगर रास्ता भटक गए हो, तो सत्य की राह अपना लो। यह तो बहुमूल्य रत्नों की खान है।
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🌾 “कर्मयोगी की पहचान, कर्म में नहीं — सत्य में है।” 🌾
— आत्मगुरु।
अतः सत्य के इस यज्ञ में सहभागी बनें।
🙏 अटल घोषणा: मेरे ये मौलिक विचार और सूक्ष्म प्रेरणा यथार्थ का हिस्सा मात्र नहीं हैं। यह ज्ञान की वह पूंजी है, जो आगे चलकर ‘जीवन दर्शन ग्रंथ’ का रूप लेगी। मेरी यात्रा में सहभागी बनें।
“मेरे पास इतना समय कहाँ है कि मैं ग्रंथ, गुरु और पुस्तक पढ़ूँ,
मैं तो ख़ुद को पढ़ने में व्यस्त हूँ,
मैं तो प्रकृति और मानव को पढ़ने में खोया हूँ।”
ज्ञान की पूंजी बाहर नहीं, भीतर की गहराई में है।
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