🛡️ आत्मविश्वास अहंकार में क्यों नहीं बदलता? भ्रम की छाया और मन का अटल तोड़
[प्रस्तावना: भ्रम की छाया से सत्य की ओर]हम पीढ़ियों से एक **भ्रम की छाया** में जी रहे हैं, जहाँ हमने **आत्मविश्वास** और **अहंकार** को एक ही यात्रा के दो छोर मान लिया है। लेकिन **अटल सत्य** यह है कि **आत्मविश्वास (आत्मा और विश्वास का मिलन)** स्वयं अहंकार में नहीं बदलता। यह मिलन तो ईश्वर का प्रतीक और अमरता का द्वार है, जो हर अहम (Ego) से मुक्त है।
वास्तव में, **अहंकार का जन्म मन से होता है**, न कि आत्मा से। जब भीतर से शुद्ध **'मैं'** उठता है, वह आत्मचिंतन का आरंभ बिंदु बनता है। परंतु जब परिस्थिति बदलने पर कोई व्यक्ति सत्य का ढोंग त्यागकर असत्य का बर्ताव करता है, तो यह सिद्ध होता है कि सत्य कभी नहीं बदला—बल्कि वह व्यक्ति **शुरुआत से ही विवशता के कारण सत्य का मुखौटा पहने था।**
आज हम इसी **विवेक के आधार** पर अज्ञानता के प्रवाह को तोड़ेंगे और आत्मविश्वास, आत्मसम्मान और अहंकार के बीच की **अटल रेखा** को स्थापित करेंगे।
🛡️ आत्मसम्मान का कवच और आत्मविश्वास का शस्त्र: आत्मा से जुड़ाव
“यह एक भ्रम है कि **आत्मविश्वास** बढ़ते-बढ़ते **अहंकार** में बदल जाता है। यह तो **अज्ञानता** का अंधविश्वास होता है जो हमें कीचड़ में गिराता है।”
🔥 आत्मविश्वास की जड़: आत्मा का स्त्रोत
यह एक भ्रम है कि आत्मविश्वास बढ़ते-बढ़ते अहंकार में बदल जाता है। यह तो अज्ञानता का अंधविश्वास होता है जो हमें कीचड़ में गिराता है।
मैं एक भ्रम में जी रहा था कि बाहरी दुनिया में ही सच्चाई पर कीचड़ उछाला जा रहा है। पर जब भीतर जाकर देखा, तब यह अहसास हुआ कि **कीचड़ की जड़ ही भीतर है।**
लोग कहते हैं कि आत्मविश्वास बढ़ता है तो अहंकार में बदल जाता है, लेकिन यह सत्य नहीं है। जब आत्मविश्वास बढ़ता है, तो **आत्मज्ञान का स्त्रोत** बहता है।
बुद्धि यह तय करती है कि किस दिशा में जाना है—**आत्मा की ओर या मन की ओर?**
जो आत्मा से जुड़ता है, वहीं **आत्मविश्वास का जन्म** होता है। आत्मा प्रकाशित है, क्योंकि आत्मा एवं परमात्मा—अर्थात यह **ईश्वर का अंश** है।
जो इंसान आत्मज्ञान से सत्य को पहचानकर अपने कर्तव्य निभाता है, वह ईश्वर का सबसे प्रिय भक्त कहलाता है और ईश्वर के करीब पहुँच जाता है।
आत्मा एक कवच प्रदान करती है और इंसान को भटकने नहीं देती।
🌀 मन की अस्थिरता और अहंकार का शिकार
अब देखें, यदि बुद्धि का स्त्रोत मन की ओर बह जाता है, तो क्या होता है?
मन अस्थिर, लालची, चालाक और चंचल होता है। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि मन दूषित है, मन केवल मिश्रण है।
मन की अस्थिरता से इंसान भी स्थिर नहीं रह पाता, वह स्वार्थ, लालच और मोह-माया में अंधा हो जाता है और आगे जाकर **अहंकार का शिकार** होता है।
जब बुद्धि का स्त्रोत आत्मा से जुड़ा ही नहीं, तो आत्मविश्वास का जन्म भी नहीं हुआ। और जब आत्मविश्वास का जन्म ही नहीं होता, तो उसे अहंकार में बदलने का सवाल ही नहीं उठता—वह तो शुरुआत से ही अहंकार का शिकार होता है।
अतः, यह तय बुद्धि करती है कि किस दिशा में जाना है।
⭐ आत्मसम्मान की पहचान: ज़मीर की अखंडता
यह भी एक गलतफहमी है कि आत्मसम्मान और अहंकार एक ही हैं।
आत्मसम्मान बाहरी नहीं है; यह हमारे भीतर या ख़ुद के उसूलों का रक्षण है।
हमें झुकने में कोई ऐतराज नहीं है। लेकिन हम विवशता की कालकोठरी में कैद हैं।
ज़मीर की अखंडता ने हमें सिद्धांतों की जंजीरों से जकड़ कर रखा है।
आत्मसम्मान भीतर से अकेला नहीं उठता; यह ज़मीर और खुमारी से उठता है। यह सच्चाई और नैतिकता से जुड़ा होता है, और ज़मीर की अखंडता का रक्षण है।
नैतिकता वहाँ होती है जो ख़ुद को पहचानकर आत्मज्ञान से सत्य को पहचानता है। आत्मसम्मान का मतलब यह नहीं कि हम हर चीज़ में न झुकें; यह तो नैतिकता के साथ होता है। यह ज़मीर की अखंडता और सत्य की रक्षा से जन्मता है।
अटल सत्य: आत्मसम्मान को किसी से प्राप्त नहीं किया जा सकता। सत्य और नैतिकता के बिना कोई भी सम्मान अस्थाई है।
📜 आत्मसम्मान का सिद्धांत
“तू है अनमोल, तेरे भीतर न किसीको तोल। ये तो दुनिया का है खेल, अन्यथा उसूलों का कौन करेगा मोल?”
हम सब कुछ न्योछावर कर सकते हैं।
हम ख़ुद का सौदा भी कर सकते हैं, बल्कि **ज़मीर का कभी नहीं।**
ज़मीर हमारा अस्तित्व है, और आत्मसम्मान उसकी पहचान है। आत्मसम्मान का आधार हमेशा अंदरूनी अखंडता और सच्चाई होती है।
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